Friday, September 18, 2015


Ek Khyaaal!


आज मौसम बहुत खुशनुमा है. महीने की कड़ी धुप के बाद आज थोड़ी राहत है.आकाश में काले बदल ऐसे लग रहे हों जैसे रहीम के किसी दोहे की नायिका ने अपने लम्बे काले केश धोने  के बाद सूखने के लिए उन्हें खुला छोड़ दिया हो. अमूमन मैं घर में अकेले ही रहती हूँ . ना ज़्यादा लोग मुझसे मिलने आते हैं न ही मैं कहीं किसी से मिलने जाती हूँ. दोस्त के नाम पे एक या दो लोग है जिनसे कभी कभार मुलाकात हो जाती है. ज़िन्दगी अपने ढर्रे पे चल रही है उसी दिनचर्या से ..कोई खास बदलाव नहीं है. मगर पता नही क्यों आज ऐसा लग रहा है की आज घर से बाहर निकलूं. मौसम में अचानक से आये इस बदलाव ने शायद मेरे भी ब्यवहार में कुछ बदलाव लाया है. मन हो रहा है की बाहर निकल के मौसम के सुह्वानेपन का आनंद लू. चाय के लिए गरम पानी रख दिया है गैस पे. घडी में देखा तो ५ बज रहे थे. ऐसा नहीं है की ५ बजे कुछ खास करने के लिए था , बस अचानक घडी पे नज़र चली गयी. समय का कोई खास महत्त्व नहीं है मेरी ज़िन्दगी में..समय ही समय है.

चाय का कप एक हाथ में और दूसरे में "गुनाहों का देवता" किताब ले के बाहर बरामदे में चली गयी. ओह ! शायद यही ज़िन्दगी है . सुहावने से इस मौसम में चाय का एक कप और एक अच्छी  सी किताब और क्या चाहिए ज़िन्दगी में . वो कहते हैं न जिसने प्रकृति के साथ रिश्ता जोड़ लिया उसने सही मायने में अपने ज़िन्दगी के मकसद को समझ लिया है. खैर ऐसा नहीं है की मुझे अपनी ज़िन्दगी का मकसद समझ आ गया है, बस आज इस बात का मतलब समझ आ रहा है .

बाहर बरामदे में बैठे चाय की चुस्कियां लेते हुए किताब के पन्नें पलट रही हूँ लेकिन ध्यान नहीं लगा पा रही किताब में. पता नहीं क्यों मन बहुत ही भटका सा है आज. बंद करके किताब आकाश की तरफ देखने लगी. छोटे छोटे काले बादल एक गुट बना के बिखरे हुए हैं जैसे कन्हैया के काले घुंघराले बाल हवा से लहरा रहे हो.हलकी हलकी सी बारिश की छींटे कभी कभी मुझे छू के निकल जा रही हैं. बारिश इतनी हलकी हो रही है जैसे लग रहा है की आकाश अपने मन में छुपे दुःख को सिसकियों के बहाने दुनिया को दिखने की कोशिश कर रहा है. छितिज के उस पार इन्द्रधनुष की हलकी ही एक लड़ी दिख रही है. बचपन के दिन याद आ गए  जब इंद्रधनुष देखके इतने खुश होते थे की जैसे कोई चमत्कार देख लिया हओ. खड़े खड़े बहुत सारे ख्याल मन में आ रहे हैं. मन की गहन दुनिया में विचार कितने गोते लगाते हैं वो कोई नश्वर प्राणी तो नहीं समझ सकता . लेकिन अचानक से एक ख्याल मन में आया और  पूरा  ध्यान वहीँ लग गया.
 शहर का एक छोटा सा कोना. हवाई जहाज से देखो तो शायद चींटी जैसा भी ना दिखे. शहर के उस कोने में दो लोग मिलते हैं. दो अजनबी. एक दूसरे से पूरी तरह से अनजान. एक दूसरे से पूरी तरह से अलग.एक दूसरे के व्यक्तित्व के पूर्ण रूप से अपरिचित. दो अलग अलग जगह पले बढे .बस नसीब की जाने क्या मंशा थी  दोनों को एक जगह मिला दिया. किस्मत से एक ही जगह पे आ गए, शहर के उसी छोटे कोने में. एक ही ऑफिस में काम करते हैं सो रोज़ आते हैं उसी जगह पे. बैठने की कुर्सियों में ज्यादा दुरी नहीं है.मगर एक दूसरे से बात नहीं होती. अभी भी अजनबी ही हैं. कुछ दिन बीते ऐसे ही . चेहरा जाना पहचाना सा लगने लगा लेकिन बात हुई नहीं अभी तक. कैसे हो अभी भी अजनबी ही तो  हैं.बस अब आते जाते एक दूसरे को देखके हल्का सा मुस्कुरा देते हैं.फेसबुक की "फ्रेंड लिस्ट" में नहीं है ."जीमेल" की "चैट लिस्ट " में भी नहीं है. नंबर नहीं है तो "व्हाट्सप्प" में भी नहीं जुड़े हैं. बस मन में कहीं न कहीं ये है की बात करनी चाहिए , या शायद नहीं.यही कश्मकश है. मगर कौन शुरू करे बात ये पता नहीं. अचानक एक दिन कैंटीन में चाय की चुस्कियां लेते हुए दोनों अपने अपने अकेलेपण में खोये हुए हैं. एकदूसरे को देखते हैं मुसकराते हैं. एक ने जैसे खुद को आमंत्रित करने का निवेदन किया हो और दूसरे ने पलकें झुका के वो निवेदन मंजूर कर लिया हो. फिर क्या , एक दूसरे के अकेलेपन और बोरियत को दूर करने के लिए एक ही टेबल पे बैठ जाते हैं.पहली बार बात होती है. कुछ खास नहीं , बस नाम काम. अब अजनबी तो नहीं मगर साथी भी नहीं.
अगले दिन फिर से चाय पे मिलते हैं , अगले दिन फिर और फिर हर दिन. जान पहचान अब दोस्ती में बदल गयी है.फेसबुक में एक दूसरे के "फोटोज़" और "स्टेटस" को लाइक करते रहते हैं. "जीमेल " में घंटो घंटो "चैट " करते हैं. "व्हाट्सप्प" के "लास्ट सीन" को बार बार देखते रहते हैं.  एक दूसरे का पूरा ख्याल रखने लगे हैं.छोटी छोटी बातें , छोटी छोटी खुशियां. अपनी हर बात एक दूसरे को बताते हैं. हर ख़ुशी साथ में मनाते हैं. हर गम के लिए एक दूसरे का सहारा बनते हैं. रिश्ते को नाम क्या देना है पता नहीं. शायद देना भी नहीं चाहते कोई नाम. रिश्ते को नाम देना शायद उसकी गहराइयों को कम करना होता है. हाँ मगर अब अजनबी तो नहीं हैं. दोस्त है या उससे कुछ बढ़कर वो पता नहीं. इतना ज़रूर है की एक दूसरे के साथ बहुत खुश हैं. एक दूसरे के साथ हैं.हर समय.
क्या ! प्यार!! नहीं नहीं ! प्यार तो नहीं है. या पता नहीं, कुछ कह नहीं सकते.कभी किसी ने कुछ कहा नहीं.खुद को भी कहाँ पता है. बस खुश हैं क्या इतना काफी नहीं ज़िन्दगी जीने के लिए. अजनबी शब्द भी नहीं जानते . जन्मो के मिले हुए लगते हैं.
 साथ साथ हैं. हर समय हर पल.किसे किस वक़्त क्या चाहिए दूसरे को पता है.किसे क्या अच्छा लगता है , कौन किस बात कैसे "रियेक्ट " करेगा दूसरे को मालूम है. और वही करना है अब जिससे दूसरे को ज़्यादा से ज़्यादा खुश रख सके. घंटो बातें , एक दूसरे के साथ समय बीताना.  सड़क के किनारे ..एक दूसरे का हाथ पकडे लम्बी लम्बी सैर , ऐसा लगता है यही ज़िन्दगी है. एक दूसरे के साथ होना, एक दूसरे का साथ  देना. ज़िन्दगी का लक्ष्य मिल गया.
लेकिन जैसे की वो कहते हैं हर अच्छी चीज का समय पूर्व निर्धारित होता है और उसे उस समय खत्म होना होता है. एक दिन कुछ हुआ. एक ने दूसरे से कुछ कहा , कोई ज़रूरत थी शायद. लेकिन दूसरा कर नहीं सका. पता नहीं क्यों. बहुत व्यस्त था अपने काम में.समय नहीं था. या करना नहीं चाहता था.या शायद कर नही कर सकता था. और सोचा छोटी सी बात है , बुरा क्या मानना होगा इस बात का. लेकिन  बुरा लगा पहले को .एक दूसरे पे इतना निर्भर हो चुके थे के की शायद ना सुनना थोड़ा नया था. उस दिन पहली बार झगडे दोनों. क्यूंकि पहले को बुरा लगा था, और दूसरे को समझ नही आया क्यों.  खैर पहले ने समझा लिया खुद को. बुरा लगा था मगर थोड़ी देर के लिए ही.सब सही हो गया फिर.
फिर वही हुआ,  मगर , इस बार दूसरे के साथ.पहला समय ना निकल सका. और दूसरा रूठ गया. फिर से  झगड़ा हुआ और सही हो गया. आखिर दोस्तीमे थोड़े झगडे होने ही चाहिए. चाहे कितने ही झगडे हो अगर रिश्ता मजबूत हो तो बाकि कुछ मायने नहीं रखता. ये सोच के फिर सब सही हो गया.
लेकिन अब ये नियम ही बन गया जैसे. उम्मीदें बढ़ने लगी और टूटने लगी. प्यार तो था ही अभी भी,  मगर जड़ें कमजोर होने लगी थी. फिर एक दूसरे से उम्मीदें रखनी छोड़ दी. अभी भी नाराज़गी नहीं थी, प्यार की वजह से ही , एक दूसरे के बारे में सोच के ही. यही सोचते की क्यों कुछ कहें . क्यों दूसरे को परेशान करें? नहीं रखेंगे कोई  उम्मीद , नहीं कहेंगे कुछ.दोस्त जो हैं... प्यार जो है. हाँ सामने वाले ने कुछ  बोला तो ज़रूर सुनेगे. लेकिन दोनों ही तो यही सोच रहे हैं तो किसी ने कुछ नहीं कहा. कुछ नहीं कहते अब एक दूसरे से. कोई उम्मीद नहीं रखते .एक दूसरे को अपनी तकलीफ नहीं बताते.कैसे बताये. ये डर  है की बताया तो सामने वाला परेशान होगा . पता नहीं क्या सोचेगा.नहीं नहीं !! नहीं कह सकते कुछ.
ख़ुशी भी नहीं बतानी. और खुश कौन है वैसे भी.
बातैं अब काम हो गयी हैं.घंटो की जगह मिनटों में होती हैं. अब शायद रोज़ होती भी नहीं है.पहले दो दिन में एक बार तो अब हफ्ते में एक बार हो गया है. क्या बात करें. प्यार तो है अभी भी.लेकिन अब कुछ खतम सा है. कई कोशिशें हुई सब कुछ सही करने की,  पहले जैसे करने की लेकिन कामयाब ना हो पायीं. प्यार तो है मगर एक टीस है मन में जो सब सही होने नहीं देती.
पहले फेसबुक से ब्लॉक फिर जीमेल और फिर व्हाट्सप्प से भी. कभी कभी फोन कर लेते हों. लेकिन बातों में  अब वो बात नहीं . अब शायद लगने लगा है कि वो एक दूसरे से कितने अलग हैं. वही छोटी छोटी चीज़ें जो कभी बहुत पसंद थी अब बौखला देती हैं. सोचते हैं आखिर इतने दिन एक दूसरे एक साथ रह कैसे गए.अच्छा हुआ जो हुआ.
आज फिर से कैंटीन कि अलग अलग टेबल पे बैठे चाय पी रहे हैं और अपने अपने अकेलेपन में खोये हैं और बोर भी हो रहे हैं.लेकिन आज कोई नहीं जा रहा एक दूसरे का साथ देने. एक दूसरे कि बोरियत दूर करने. आज कोई खुद को आमंत्रित नहीं कर रहा न ही कोई पलकें झुका के किसी का स्वागत.कौन कहे पहले कौन जाये पहले. बात करना तो चाहते हैं. मगर कुछ है जिसकी वजह से नहीं जा रहे. बस एक दूसरे का इंतज़ार कर रहे हैं. और इंतज़ार करते करते ही चले गए.अब बात नहीं होती. बस आते जाते एक दूसरे को देख के हल्का सा मुस्कुरा देते हैं. शायद अब अजनबी हैं.

किस्मत ने उन्हें पहले कि तरह अलग कर दिया. हाँ.अजनबी ही तो हैं. एक दूसरे से पूरी तरह से अनजान.एक दूसरे से अलग. कभी सोच भी नहीं पते कि कभी मिले थे एक दूसरे से.अब शायद किसी दूसरे अजनबी की तलाश में हैं .

अचनक जब ध्यान हटा तो देखा . बारिश के उन हलकी हलकी बूंदो ने ही मुझे आधा गीला कर दिया था. आँखों के किनारे पे आंसू  की एक छोटी सी बूँद निकल आई थी जो मेरे गालो से बहते हुए होंटो तक पहुंच गयी थी. शायद आकाश की सिसकियों में मैंने भी उसका साथ दे दिया था. चाय का कप कहीं लड़खड़ाता हुआ कहीं निकल गया था और "गुनाहो का देवता " के पन्नें हवा में फड़ फड़ कर रहे थे.

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